पोडू खेती असल में स्थानांतरित खेती जैसी ही होती है। ये एक तरह की झूम या स्लैश एंड बर्न खेती है, जिसे आमतौर पर तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के पहाड़ी इलाकों में आदिवासी समुदाय करते हैं। अगर इसे सही तरीके से किया जाए तो यह हमें जंगलों के इकोसिस्टम, मिट्टी की उर्वरता और जमीन के टिकाऊ इस्तेमाल को बेहतर समझने में मदद करती है।
हालांकि, इसकी कम लागत और जलवायु अनुकूल पद्धति के कारण एक बार फिर से लोगों की इसमें रुचि बढ़ी है। पोडू खेती की सही शुरुआत कब और कैसे हुई, यह कहना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन माना जाता है कि यह पद्धति भारत में हजारों सालों से प्रचलित है। तेलंगाना, ओडिशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और पूर्वी घाट के कुछ हिस्सों में गोंड, कोंध, और कोया जैसे जनजातीय समुदाय पीढ़ी दर पीढ़ी पोडू खेती की परंपरा को आगे बढ़ाते आ रहे हैं।
पोडू खेती की परिभाषा
पोडू खेती एक पुरानी पारंपरिक खेती की पद्धति है, जो स्थानांतरित खेती जैसी होती है, जिसमें किसान:
- आमतौर पर पहाड़ियों की ढलानों पर जंगल के छोटे-छोटे हिस्सों को साफ करते हैं।
- कटी हुई वनस्पति को सूखने और सड़ने दिया जाता है, और फिर उसे जला दिया जाता है (इसे ही स्लैश एंड बर्न प्रक्रिया कहा जाता है)।
- फिर वे जली हुई राख से भरपूर मिट्टी में बिना हल चलाए सीधे बीज बोते हैं।
- मिट्टी की उर्वरता कम होने तक 2 से 3 साल तक फसलें उगाई जाती हैं।
- फिर उस ज़मीन को 5 से 10 साल या उससे ज़्यादा समय के लिए छोड़ दिया जाता है। इस दौरान वहाँ की प्राकृतिक वनस्पति अपने आप वापस उग आती है।
जब किसी क्षेत्र की प्राकृतिक वनस्पति दोबारा उग आती है, तो उस जमीन पर फिर से पोडू खेती की जा सकती है।
पोडू खेती की विशेषताएँ
- पोडू खेती करने के लिए बहुत कम या बिलकुल भी बाहरी संसाधनों की जरूरत नहीं होती।
- यह वर्षा आधारित खेती प्रणाली है और स्वभाव से पूरी तरह जैविक होती है।
- पोडू खेती में आमतौर पर जो फसलें उगाई जाती हैं, वे हैं – बाजरा, दालें, तिलहन, मक्का और कंद वाली फसलें।
- यह एक घूर्णन प्रणाली के रूप में की जाती है, जिसमें कई खेतों को बारी-बारी से इस्तेमाल किया जाता है।
- पोडू खेती सिर्फ एक कृषि तकनीक नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समुदायों की एक सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा भी है।
पोडू खेती के नुकसान
- यह बड़े पैमाने पर वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान का कारण बन सकता है।
- लगातार खेती करने से, अगर खेत को आराम करने के लिए पर्याप्त समय न दिया जाए, तो धीरे-धीरे मिट्टी के पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं। राख सभी जरूरी पोषक तत्व नहीं देती।
- जैविक पदार्थों को जलाने से कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसें निकलती हैं।
- इसे जंगल और पर्यावरण संबंधी कानूनों के तहत अवैध अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है।
- पोडू खेती को सरकारी सहायता, सब्सिडी या विस्तार सेवाएं बहुत ही सीमित मात्रा में मिलती हैं।
- पोडू खेती प्रणाली में फसलों की पैदावार तुलनात्मक रूप से कम होती है क्योंकि इसमें सिंचाई, आवश्यक संसाधन और मशीनों का उपयोग नहीं होता।
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